बंदरों का हम सबकी ज़िन्दगी में बहुत अहम् रोल रहा है.
चाहे वो हमारा एवोल्यूशन ही क्यों ना हो
या फिर
बुराई को ना देखने का, ना सुनने का और ना बोलने की हिदायत ही क्यों ना हो.
कहते हैं अच्छी चीज़ों पे फोकस करो तो ज़िन्दगी हसीन लगने लगती है,
हर इंसान के अच्छे पहलू पे फोकस करने को डेल कार्नेगी भी लिख गए है.
पर जैसे ही इन किताबों का हैंगओवर पूरा होता है,
और
गांधीजी कहीं किसी कहानी में खो जाते हैं,
फिर वही हम और हमारी क्रिटिकल शक्की नजरिया,
ये ऐसा है,
ये वैसा है,
इसने मुझे ये कैसे कहा,
उसने मुझे ऐसा कह दिया,
मुझे इसने इज़्ज़त नहीं नवाज़ी,
उसने मुझे गरिया दिया,
शिकायती टट्टू बनने में हमें बिलकुल देर नहीं लगती,
आज सुबह जब मैं कैब में आ रहा था,
तब ट्रैफिक में चलते हुए लोगों की आपा धापी देख के मैं घबरा गया,
पहले गुस्सा आया दुनिया के इस रवैये पे,
फिर दूसरे पल मैंने एक चिंता का मखौटा पहन लिया,
चिंता के बाद कुछ ना कर पाने की हताशे में मैं डूबने ही वाला था,
तभी
गांधीजी के तीन बंदरों की छवि मेरे समक्ष आ गयी और मैं हस पड़ा,
इससे मैं टेंशन मुक्त तो हो गया
पर
क्या यही एक रास्ता है इन सब से पीछा छुड़ाने का,
ये विचार करने लगा,
आपको क्या लगता है,
इस बदलते समय में जिस तरफ हमारा देश और दुनिया अग्रसर है,
चाहे वो हो रहे रेप या हत्याएं हो,
चाहे वो सड़क पे बढ़ता हुआ गुस्सा और अग्रेशन हो,
चाहे वो पैसे के पीछे भागने की होड़ हो,
चाहे वो वैल्यू सिस्टम का समाप्त होना हो,
चाहे वो माँ बाप की सेवा करने से हाथ धो लेना हो,
चाहे वो इस वातावरण को तहस नहस कर देने का हमारा व्यवहार हो,
या
चाहे सिर्फ अपने बारे में सोचने की आदत हो,
क्या सिर्फ अच्छे पहलू को देखना ही इसका एक मात्र उत्तर है,
और अगर नहीं,
तो क्या हम सबको अपने अपने लेवल पे एफर्ट करने की ज़रुरत नहीं है,
इस ज़िम्मेदारी को हम सबको समझने की बहुत ज़रुरत है,
जिससे एक अच्छे सोसाइटी का निर्माण किया जा सके,
इसके लिए हमें गांधीजी के उन तीन बंदरों को इगनोर करना ही क्यों ना पड़े,
सवाल बस इतना सा है दोस्तों,
क्या हम खुद से ऊपर उठ कर
इस दुनिया में जी रहे और लोगों जीव जंतुओं के बारे में सोच कर
एक सही सिस्टम के निर्माण का निर्णय लेने को तैयार है या नहीं?
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